Thursday, May 12, 2016

सूर्य और राहू की युति.

सूर्य और राहू की युति.....
कुंडली में सूर्य नवग्रहों का राजा होता है और सूर्य के नजदीक जब कोई भी ग्रह आ जाता है तो वो अस्त हो जाता है यानी की अपनी छवि और प्रभाव को खो देता है ............ लेकिन कभी कभी ये काम उल्टा भी हो जाता है जब राहू सूर्य के साथ युति कर बैठता है तो इस स्थति को सूर्य ग्रहण योग कहा जाता है |
इस प्रकार की युति को अशुभ योग माना जाता है क्युकी इस युति के कारन जातक अल्पायु हो जाता है कुछ एक मामलो को छोड़कर यह सही पाया जाता है |सूर्य आत्मा का कारक ग्रह है इसलिए राहू की युति होने पर जातक में आत्म विश्वास की कमी रहती है |जातक की बयालीस साल की उम्र के आसपास संतान कष्ट पाती है |धन भी नाश हो जाता है |सूर्य और राहू की अशुभ युति कुंडली में चाहे किसी भी भाव में हो तो वह उस स्थान से सम्बंधित शुभ फलो का नाश कर देता है नातेदार और रिश्तेदारों से भी सम्बन्ध ख़राब करवा देता है |ऐसे समय में शत्रु ग्रह अपनी अपनी समयावधि में ही जातक को अशुभ फल देते है जैसे की शुक्र २५ वे वर्ष में, शनि ३६ वे वर्ष में और राहू ४२ वे वर्ष में तकलीफ देते है |
शत्रु ग्रह के साथ युति हो तो बुध ग्रह की शांति करवाने पर या उपाय करने पर ही अशुभ फलो में कमी होती है |अशुभ युति में सूर्य के साथ मित्र ग्रह चन्द्र, मंगल, गुरु हो तो उन पर भी अशुभ प्रभाव पड़ता है |सरकारी काम काज में परेशानिया बढ़ जाती है |
सूर्य रहू की युति हो तो अगर राहू की शांति करवाई जाए तो फिर रहू की समयावधि के बाद सूर्य का शुभ फल मिलता है और राहू के काल में भी अशुभ फलो में कमी आती है और शुभ फल की प्राप्ति होती है |
अशुभ प्रभाव के कारण जातक के विचार गंदे और कपट पूर्ण होते है |सूर्य और रहू की युति में अगर बुध साथ में हो तो फिर अशुभ फलो में कमी हो जाती है और सरकारी कामो में लाभ मिलता है |वैसे सूर्य और राहू अगर नवमे या ग्यारवे भाव में एक साथ हो तो विशेष रूप से ज्यादा अशुभ फल प्राप्त होते है | जीस घर में ये बैठे होते है उसके साथ साथ अपने आस पास के घरो को भी बिगाड़ देते है और अशुभ फल देने लगते है |जैसे की अगर ये युति जातक के छठे घर में हो तो सातवे भाव को भी दूषित कर डालते है और बारवे भाव को भी अशुभ बना देते है |
जातक की कुंडली में यदि सूर्य और राहू की युति हो और मंगल भी नीच का हो अशुभ हो या फिर राहू पर द्रष्टि न हो तो जातक को २१ और ४२ वर्ष की आयु में संतान को दुखी कर डालती है |जातक का भाग्य और स्वास्थ्य दोनों ही कमजोर हो जाते है |शरीर पर काले और सफ़ेद दाग कोढ़ जैसे हो जाते है |
शनि और मंगल दोनों नवमे भाग्य स्थान में बैठे हो और सूर्य और राहू की युति कुंडली में किसी भी स्थान में हो तो जातक का जन्म के समय से ही जीवन अच्छा रहता है |सूर्य और राहू की युति आठवे और दसवे भाव में हो तो जातक अल्पायु ही होता है |
----------------- इस युति के अशुभ का निवारण के उपाय-----------
--१--चोरी या धनहानि के कारन अगर आर्थिक हालत बिगडती है तो फिर कपडे में थोड़े से जौ बांधकर मकान के अंधरे हिस्से में वजन के निचे दबाकर रखे |
--२-- जातक को बार बार बुखार आता हो और आकर के जल्दी न उतरता हो तो जौ को गौ मूत्र में धोकर के नदी में बहाना चाहिए |
--३-- राहू की वस्तुए बादाम, नारियल आदि को बहते पानी में बहाना चाहिए |
--४-- ताम्बे का पैसा रात में अग्नि पर तपकर सवेरे बहते पानी में बहाए |पैसा पानी में बहाने के बाद तुरंत ही अपने रिश्तेदारों के सामने या पास न जाए उनके ऊपर राहू का दोष हो सकता है |
शुंभ भवतु.

क्या आपकी कुंड़ली मे भी कोई गृह आपको कष्ट पहुंचा रहा है

क्या आपकी कुंड़ली मे भी कोई गृह आपको कष्ट पहुंचा रहा है.??
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जो जीव एक बार श्री कृष्ण के शरणागत हो जाता है, उसे फिर किसी ज्योतिषी को अपनी ग्रहदशा और जन्म कुंडली दिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
इसके पीछे का विज्ञान तो यह है कि भगवान् के शरणागत जीव की रक्षा स्वयं भगवान् किया करते हैं।
और सब ग्रह, नक्षत्र, देवी देवता श्री कृष्ण की ही शक्तियाँ हैं, सब उनके ही दास हैं।
इसलिए भक्त का अनिष्ट कोई कर नहीं सकता और प्रारब्ध जन्य अनिष्ट को कोई टाल नहीं सकता।
फिर भी कई बार हम अपने हाथों में में रंग-बिरंगी अंगूठियाँ पहनकर, जप, दान आदि करके हम अपने ग्रहों को तुष्ट करने में लगे रहते हैं।
श्रीकृष्ण हमारे सखा हैं...
आइये अब समझें कि किस ग्रह का हमारे सर्व समर्थ श्रीकृष्ण से कैसा संसारी नाता है।
जो मृत्यु के राजा हैं यम, वह यमुना जी के भाई हैं, और यमुना जी हैं भगवान की पटरानी, तो यम हुए भगवान के साले, तो हमारे सखा के साले हमारा क्या बिगाड़ेंगे.?
सूर्य हैं भगवान के ससुर (यमुना जी के पिता) तो हमारे मित्र के ससुर भला हमारा क्या अहित करेंगे.?
सूर्य के पुत्र हैं शनि, तो वह भी भगवान के साले हुए तो शनिदेव हमारा क्या बिगाड़ लेंगे.?
चंद्रमा और लक्ष्मी जी समुद्र से प्रकट हुए थे। लक्ष्मी जी भगवान की पत्नी हैं, और लक्ष्मी जी के भाई हैं चंद्रमा, क्योंकि दोनों के पिता हैं समुद्र।
तो चन्द्रमा भी भगवान के साले हुए, तो वे भी हमारा क्या बिगाड़ेंगे.?
बुध चंद्रमा के पुत्र हैं, तो उनसे भी हमारे प्यारे का ससुराल का नाता है।
हमारे सखा श्रीकृष्ण बुध के फूफाजी हुए, तो भला बुध हमारा क्या बिगाड़ेंगे.?
बृहस्पति और शुक्र वैसे ही बड़े सौम्य ग्रह हैं, फिर, ये दोनों ही परम विद्वान् हैं, इसलिए श्रीकृष्ण के भक्तों की तरफ इनकी कुदृष्टि कभी हो ही नहीं सकती।
राहु-केतु तो बेचारे जिस दिन एक से दो हुए, उस दिन से आज तक भगवान के चक्र के पराक्रम को कभी नहीं भूले।
भला वे कृष्ण के सखाओं की ओर टेढ़ी नजर से देखने की हिम्मत जुटा पाएँगे.?
तो अब बचे मंगल ग्रह...
ये हैं तो क्रूर गृह, लेकिन ये तो अपनी सत्यभामा जी के भाई हैं।
चलो, ये भी निकले हमारे प्यारे के ससुराल वाले।
अतः श्रीकृष्ण के साले होकर मंगल हमारा अनिष्ट कैसे करेंगे.?
इसलिए श्री कृष्ण के शरणागत को किसी भी ग्रह से कभी भी डरने की जरूरत नहीं.
संसार में कोई चाहकर भी अब हमारा अनिष्ट नहीं कर सकता।
इसलिए निर्भय होकर, डंके की चोट पर श्रीकृष्ण से अपना नाता जोड़े रखिए।
हाँ, जिसने श्रीकृष्ण से अभी तक कोई भी रिश्ता पक्का नहीं किया है, उसे संसार में पग-पग पर ख़तरा है।
उसे तो सब ग्रहों को अलग-अलग मनाना पडेगा।
इसलिए श्री कृष्ण से अपना रिश्ता जोड़ लो और इनकी शरण में आ जाओ..
सदा उनके नामो का जाप करो
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे,
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

नवमांश कुंडली

नवमांश कुंडली
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में ,जन्म लग्न ,चन्द्रलग्न कुडली के अतिरिक्त विविध वर्ग कुडली होरा,द्रेष्काण,सप्तमाश,नवमांश ,द्वादशांश ,त्रिंशांश का महत्व विशेष माना गया हे इन में नवमांश कुंडली का महत्व सविशेष हे
नवमांश को इतना महत्व क्यों ?
||"नून नवांशे तू कलत्रसौख्यं "|| नवमांश से पति या पत्नी का सुख देखा जाता हे
यह कहा गया हे पर उस से अतिरिक्त नवमांश कुंडली का महत्व इस लिए अन्य वर्ग कुंडली से बढ़ जाता हे की नवमांश कुंडली से मूल जन्म कुडली के ग्रहों का बलाबल भी देखा जाता हे ,
नवमांश कुंडली सोधन
३०अन्श की एक राशि ३ अंश २०" के ९ समान भाग
३ अंश २०" = एक नवमांश
१)मेष ,सिंह ,धन .......मेषादि राशि (अग्नि तत्व )
२)वृषभ ,कन्या ,मकर ...मकरदि राशि (पृथ्वी तत्व )
३)मिथुन ,तुला, कुम्भ ... तुलादि राशि (वायु तत्व )
४)कर्क ,वृश्र्चिक ,मीन ..कर्कादि राशि (जल तत्व )
नवमांश भाग
त्रिकोण में आनेवाली तीनो राशिया अग्नि ,पृथ्वी ,वायु,जल यह चारो तत्व में से एक होती हे
ग्रह या लग्न किस नवमांश में हे यह जानने के लिए ऊपर दिए गए त्रिकोण समूह में से गृह या लग्न किस समूह में आता हे और उस के अंश कितने हे यह देखना होगा ex. सूर्य -००-२६-५४-४२
यहाँ सूर्य के राशि अग्नितत्व समूह में नवमाश भाग के (9th part ) में सम्मिलित होता हे अत: मेष से सुरु कर ९ मी राशी धनु हे तो यहाँ सूर्य धनु राशी के नवमांश में आएगा |
शुभं भवतु

रोग और ज्योतिषी

रोग और ज्योतिषी
सूर्य:-आत्मा,प्रकाश,शक्ति,उत्साह,तीक्ष्णता,ह्रदय,जीवनीशक्ति,मस्तिष्क,पित्त एवं पीठ
चन्द्र:- जल,नाडियाँ,प्रभाव-विचार,चित्त,गति,स्तन,रूप,छाती,तिल्ली
मंगल:- रक्त,उत्तेजना,बाजू,क्रूरता,साहस,कान
बुध:- वाणी,स्मरण-शक्ति,घ्राण-शक्ति,गर्दन,निर्णायक-मति,भौहें
गुरू:-ज्ञान,गुण,श्रुति,श्रवण-शक्ति,सदगति,जिगर,दया,जाँघ,चर्बी तथा गुर्दे
शुक्र:- वीर्य,सुगन्ध,रति,त्वचा,गुप्ताँग,गाल
शनि:- वायु,पिंडली,टांगें,केश,दाँत
राहू:- परिश्रम,विरूद्धता,आन्दोलन/विद्रोही भावनाएं,शारीरिक मलिनता,गन्दा वातावरण
केतु:- गुप्त विद्या-ज्ञान,मूर्छा,भ्रम,भयानक रोग,सहनशक्ति,आलस्य
कौन सा ग्रह किस रोग का कारक
सूर्य : पित्त, वर्ण, जलन, उदर, सम्बन्धी रोग, रोग प्रतिरोधक क्षमता की कमी, न्यूरोलॉजी से सम्बन्धी रोग, नेत्र रोग, ह्रदय रोग, अस्थियों से सम्बन्धी रोग, कुष्ठ रोग, सिर के रोग, ज्वर, मूर्च्छा, रक्तस्त्राव, मिर्गी इत्यादि.
चन्द्रमा : ह्रदय एवं फेफड़े सम्बन्धी रोग, बायें नेत्र में विकार, अनिद्रा, अस्थमा, डायरिया, रक्ताल्पता, रक्तविकार, जल की अधिकता या कमी से संबंधित रोग, उल्टी किडनी संबंधित रोग, मधुमेह, ड्रॉप्सी, अपेन्डिक्स, कफ रोग,मूत्रविकार, मुख सम्बन्धी रोग, नासिका संबंधी रोग, पीलिया, मानसिक रोग इत्यादि.
मंगल : गर्मी के रोग, विषजनित रोग, व्रण, कुष्ठ, खुजली, रक्त सम्बन्धी रोग, गर्दन एवं कण्ठ से सम्बन्धित रोग, रक्तचाप, मूत्र सम्बन्धी रोग, ट्यूमर, कैंसर, पाइल्स, अल्सर, दस्त, दुर्घटना में रक्तस्त्राव, कटना, फोड़े-फुन्सी, ज्वर, अग्निदाह, चोट इत्यादि.
बुध : छाती से सम्बन्धित रोग, नसों से सम्बन्धित रोग, नाक से सम्बन्धित रोग, ज्वर, विषमय, खुजली, अस्थिभंग, टायफाइड, पागलपन, लकवा, मिर्गी, अल्सर, अजीर्ण, मुख के रोग, चर्मरोग, हिस्टीरिया, चक्कर आना, निमोनिया, विषम ज्वर, पीलिया, वाणी दोष, कण्ठ रोग, स्नायु रोग, इत्यादि.
गुरु : लीवर, किडनी, तिल्ली आदि से सम्बन्धित रोग, कर्ण सम्बन्धी रोग, मधुमेह, पीलिया, याददाश्त में कमी, जीभ एवं पिण्डलियों से सम्बन्धित रोग, मज्जा दोष, यकृत पीलिया, स्थूलता, दंत रोग, मस्तिष्क विकार इत्यादि.
शुक्र : दृष्टि सम्बन्धित रोग, जननेन्द्रिय सम्बन्धित रोग, मूत्र सम्बन्धित एवं गुप्त रोग, मिर्गी, अपच, गले के रोग, नपुंसकता, अन्त:स्त्रावी ग्रन्थियों से संबंधित रोग, मादक द्रव्यों के सेवन से उत्पन्न रोग, पीलिया रोग इत्यादि.
शनि : शारीरिक कमजोरी, दर्द, पेट दर्द, घुटनों या पैरों में होने वाला दर्द, दांतों अथवा त्वचा सम्बन्धित रोग, अस्थिभ्रंश, मांसपेशियों से सम्बन्धित रोग, लकवा, बहरापन, खांसी, दमा, अपच, स्नायुविकार इत्यादि.
राहु : मस्तिष्क सम्बन्धी विकार, यकृत सम्बन्धी विकार, निर्बलता, चेचक, पेट में कीड़े, ऊंचाई से गिरना, पागलपन, तेज दर्द, विषजनित परेशानियां, किसी प्रकार का रियेक्शन, पशुओं या जानवरों से शारीरिक कष्ट, कुष्ठ रोग, कैंसर इत्यादि.
केतु : वातजनित बीमारियां, रक्तदोष, चर्म रोग, श्रमशक्ति की कमी, सुस्ती, अर्कमण्यता, शरीर में चोट, घाव, एलर्जी, आकस्मिक रोग या परेशानी, कुत्ते का काटना इत्यादि. -
ग्रह युतियां और रोग
गुरु-राहु की युति हो तो दमा, तपेदिक या श्वास रोग से कष्ट होगा।
गुरु-बुध की युति हो तो भी दमा या श्वास या तपेदिक रोग से कष्ट होगा।
राहु-केतु की युति हो जोकि लालकिताब की वर्षकुण्डली में हो सकती है तो बवासीर रोग से कष्ट होगा।
चन्द्र-राहु की युति हो तो पागलपन या निमोनिया रोग से कष्ट होगा।
सूर्य-शुक्र की युति हो तो भी दमा या तपेदिक या श्वास रोग से कष्ट होगा।
मंगल-शनि की युति हो तो रक्त विकार, कोढ़ या जिस्म का फट जाना आदि रोग से कष्ट होगा अथवा दुर्घटना से चोट-चपेट लगने के कारण कष्‍ट होता है।
शुक्र-राहु की युति हो तो जातक नामर्द या नपुंसक होता है।
शुक्र-केतु की युति हो तो स्वप्न दोष, पेशाब संबंधी रोग होते हैं।
गुरु-मंगल या चन्द्र-मंगल की युति हो तो पीलिया रोग से कष्ट होता है।
चन्द्र-बुध या चन्द्र-मंगल की युति हो तो ग्रन्थि रोग से कष्ट होगा।
मंगल-राहु या केतु-मंगल की युति हो तो शरीर में टयूमर या कैंसर से कष्ट होगा।
गुरु-शुक्र की युति हो या ये आपस में दृष्टि संबंध बनाएं तो डॉयबिटीज के रोग से कष्ट होता है।
ये रोग प्रायः युति कारक ग्रहों की दशार्न्तदशा के साथ-साथ गोचर में भी अशुभ हों तो ग्रह युति का फल मिलता है! इन योगों को आप अपनी कुंडली में देखकर विचार सकते हैं। ऐसा करके आप होने वाले रोगों का पूर्वाभास करके स्‍वास्‍थ्‍य के लिए सजग रह सकते हैं या दूजों की कुण्‍डली में देखकर उन्‍हें सजग कर सकते हैं।

कुंडली में सबसे लोकप्रिय है बुधादित्य योग

कुंडली में सबसे लोकप्रिय है बुधादित्य योग
सूर्य आत्मा का कारक ग्रह है। ज्योतिष शास्त्र में तो सूर्य ही सबसे प्रधान ग्रह है। चराचर जगत में सूर्य का ही प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। सूर्य पाप ग्रह न होकर क्रूर ग्रह है। क्रूर एवं पापी में बड़ा अंतर होता है।
क्रूर तो शुभ-अशुभ सभी कार्यों में रूखापन दिखाते हुए लक्ष्य में पवित्रता बनाए रखता है लेकिन पापी भाव अच्‍छा नहीं माना जाता है। बुध ग्रह सूर्य के सबसे निकट है और इसीलिए उसका पुरुषत्व समाप्त हो गया। लेकिन बुध भी अपना प्रभाव अन्य ग्रहों के सान्निध्य की अपेक्षा सूर्य के साथ होने पर विशेष प्रदान करता है।
जन्मांग चक्र में प्राय: 70 प्रतिशत संभावना सूर्य, बुध के एक साथ बने रहने की ही होती है। बुधादित्य नाम से विख्यात यह योग अलग-अलग भावों में अतिविशिष्ट फल प्रदान करने वाला होता है।
बुधादित्य योग यदि लग्न में हो तो बालक का कद माता-पिता के बीच का होता है। यदि वृष, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, कुंभ, राशि लग्न में हो तो लंबा कद होता है। जातक का स्वभाव कठोर तथा वात-पित्त-कफ से पीड़ित होता है।
बाल्यावस्था में कान, नाक, आंख, गला, दांत आदि में कष्ट सहन करना पड़ता है। स्वभाव से वीर, क्षमाशील, कुशाग्र बुद्धि, उदार, साहसी एवं आत्मसम्मानी होता है। स्त्री जातक में प्राय: चिड़चिड़ापन तथा बालों में भूरापन भी देखा जाता है।
द्वितीय भाव में यदि बु‍धादित्य योग हो तो तार्किक अभिव्यक्ति होती है, लेकिन व्यवहार में शून्यता-सी झलकती है। कई अभियंताओं, घूसखोरों एवं ऋण लेकर तथा दूसरों के धन से व्यवसाय करने वाले या दूसरों की पुस्तकें लेकर अध्ययन करने वाले लोगों के लिए स्‍थिति प्राय: बनी हुई होती है।
तृतीय स्थान पर यदि बुधादित्य योग हो तो जातक स्वयं परिश्रमी होता है तथा भाई-बहनों में आत्मीय स्नेह नहीं पा सकता। मौसी को कष्ट रहता है
शुभं भवतु
जन्मकुंडली से राहु प्रभावित समय का उपाय किया जा सकता है
। राहु की
महादशा 18 वर्षों का होता है परन्तु अन्तर्दशा में इसके रूप बदलते
रहते है। अर्थात समान रूप से ये 18 वर्ष कष्टकारी होंगे एसा नहीं है

राहु आप को किसतरह प्रभावित करता है............................
@ मानसिक तनाव वगैर किसी ठोस कारण के ।
@ अचानक भय से शरीर में थकावट को मेह्शूस करना ।
@ स्वप्न में सर्प का दिखना या रास्ते में सर्प का दर्शन होना ।
@ शारीरिक रूप से कमजोर महशुस करना ।
@ पेट में गैस का गोला बनना ।
@ कार्य बाधा से जीवन का अंत मानलेना ।
@ हमेशा लोगों से दूर रहना, बातचीत से दूर रहना
एकांत में रहने से शांति का अनुभव करना ।
@ अपनों के बातों पर गुस्सा ही गुस्सा का आना ।
@ अचानक धोखा एवं धन का नुकसान होना ।
@ कार्य - व्यापार का बंद हो जाना ।
@ दुर्घटना में हड्डी का टूट जाना ।
@ पति - पत्नी में अलगाव हो जाना ।
@ एक ही बातों को पकर के बैठ जाना और अन्य कार्य को भूल
जाना ।
@ घर से बहार होने पर, गेट मे लगे ताले के विषय में चिंतित होना -
शायद ताला बंद हुआ मुझ से अएसा विचार आना ।
@ आप को अनुभव होगा की बहोत बीमार है पर डॉक्टरी रिपोट
में
कुछ नहीं आया सब नार्मल है ये लक्षण राहु से प्रभावित समय
के कारण है ।

Wednesday, May 11, 2016

वास्तु दिशा ज्ञान : सुखी जीवन हेतु अपनाएं यह वास्तु टि‍प्स

वास्तु दिशा ज्ञान : सुखी जीवन हेतु अपनाएं यह वास्तु टि‍प्स









वास्तु शास्त्र घर को व्यवस्थित रखने की कला का नाम है। इसके सिद्धांत, नियम और फार्मूले किसी मंत्र से कम शक्तिशाली नहीं हैं। नीचे दिए गए वास्तु के अनमोल मंत्र अपनाइए और सदा सुखी रहिए
- पूर्वी दिशा अग्नि तत्व का प्रतीक है। इसके अधिपति इंद्रदेव हैं। यह दिशा पुरुषों के शयन तथा अध्ययन आदि के लिए श्रेष्ठ है।
पश्चिमी दिशा वायु तत्व की प्रतीक है। इसके अधिपति देव वरूण हैं। यह दिशा पुरुषों के लिए बहुत ही अशुभ तथा अनिष्टकारी होती है। इस दिशा में पुरुषों को वास नहीं करना चाहिए।
उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र यानी वायव्य कोण वायु तत्व प्रधान है। इसके अधिपति वायुदेव हैं। यह सर्वेंट हाउस के लिए तथा स्थाई तौर पर निवास करने वालों के लिए उपयुक्त स्थान हैं।
आग्नेय; दक्षिणी-पूर्वी कोण में नालियों की व्यवस्था करने से भू-स्वामी को अनेक कष्टों को झेलना पड़ता है। गृह स्वामी की धन-सम्पत्ति का नाश होता है तथा उसे मृत्यु भय बना रहता है।
- नैऋत्य कोण में जल-प्रवाह की नालियां भू-स्वामी पर अशुभ प्रभाव डालती हैं। इस कोण में जल-प्रवाह नालियों का निर्माण करने से भू-स्वामी पर अनेक विपत्तियां आती हैं।

ज्योतिषाचार्य नवदुर्गा शिव शक्ति ज्‍योतिष अनुसंधान केन्द्र ज्योतिष संबंधी 6 सवाल

ज्योतिषाचार्य नवदुर्गा शिव शक्ति ज्‍योतिष अनुसंधान केन्द्र
ज्योतिष संबंधी 6 सवाल
ज्योति का अर्थ होता है प्रकाश और ज्योतिष का अर्थ होता है ज्योति पिंडों का अध्ययन। ज्योतिषशास्त्र का अर्थ प्रकाश वाले पिंडों की गतिविधियों को बताने वाला शास्त्र। वर्तमान में ज्योतिष विद्या विवादों के घेरे में है और इसका कारण वे ज्योतिषशास्त्री हैं, जो लोगों का मनगढ़ंत भविष्य बता रहे हैं या लोगों को ग्रह-नक्षत्र से डरा रहे हैं। डरपोक लोगों के बारे में क्या कहें, वे तो किसी भी चीज से डर जाएंगे।
ज्योतिष के त्रिस्कंध हैं यानी इसके 3 प्रमुख स्तंभ हैं- गणित (होरा), संहिता और फलित। कुछ लोग सिद्धांत, संहिता और होरा बताते हैं। एक जमाना था जबकि सारा रेखागणित, बीजगणित, खगोल विज्ञान सब ज्योतिष की ही शाखाएं था, लेकिन अब यह विज्ञान फलित ज्योतिषियों के कारण अज्ञान में बदल गया है।
बहुत से लोगों के मन में आजकल ज्योतिष विद्या को लेकर संदेह और अविश्वास की भावना है जिसका कारण वर्तमान में प्रचलित ज्योतिष और इसको लेकर किया जा रहा व्यापार से है। टीवी चैनलों में ज्योतिष शास्त्री ज्योतिष के संबंध में न मालूम क्या-क्या बातें करके समाज में भय और भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं। यही कारण है कि कई लोगों के मन में अब ज्योतिष को लेकर संदेह उत्पन्न होने लगा है, जो कि जायज भी है। आओ जानते हैं मन में उठ रहे ऐसे 10 सवाल जिनके उत्तर आप जानना चाहेंगे।
ज्योतिष का धर्म से क्या संबंध है?
'ज्योतिषम् नेत्रमुच्यते'- इसका अर्थ होता है कि वेद को समझने के लिए, सृष्टि को समझने के लिए ‘ज्योतिष शास्त्र’ को जानना आवश्यक है। ज्योतिष को वेदों का नेत्र कहा गया है, लेकिन सवाल यह उठता है कि कौन-सा ज्योतिष? वेदों में जिस ज्योतिष विज्ञान की चर्चा की गई वह ज्योतिष या आजकल जो प्रचलित है वह ज्योतिष?
कहते हैं कि ऋग्वेद में ज्योतिष से संबंधित 30 श्लोक हैं, यजुर्वेद में 44 तथा अथर्ववेद में 162 श्लोक हैं। वेदों के उक्त श्लोकों पर आधारित आज का ज्योतिष पूर्णत: बदलकर भटक गया है। भविष्य बताने वाली विद्या को फलित ज्योतिष कहा जाता है जिसका वेदों से कोई संबंध नहीं है। ज्योतिष को 6 वेदांगों में शामिल किया गया है। ये 6 वेदांग हैं- 1. शिक्षा, 2. कल्प, 3. व्याकरण, 4. निरुक्त, 5. छंद और 6. ज्योतिष।
फलित ज्योतिष : फलित ज्योतिष के नाम से आजकल प्रचलित हैं, जैसे हस्त-रेखा विज्ञान, भविष्य-फल, राशिफल, जन्म-कुंडली। इससे वर्तमान के ज्योतिषशास्त्री लोगों का भविष्य बताते हैं या उनकी जिंदगी में आए दुखों का समाधान करते हैं और उनमें से कुछ इसी बात का फायदा उठाते हैं। वेदों में आने वाले बुद्ध, बृहस्पति, शनि आदि शब्द ग्रहों के परिचायक नहीं।
वेदों में ज्योतिष तो है, परंतु वह फलित ज्योतिष कदापि नहीं है। फलित ज्योतिष में यह माना जाता है कि या तो जीवों को कर्म करने की स्वतंत्रता है ही नहीं, अगर है भी तो वह ग्रह-नक्षत्रों के प्रभावों से कम है अर्थात आपका भाग्य-निर्माता शनि ग्रह या मंगल ग्रह है। यह धारणा धर्म विरुद्ध है। रावण ने जिस शनि को जेल में डाल रखा था, वह कोई ग्रह नहीं था। जिस राहु ने हनुमानजी का रास्ता रोका था, वह भी कोई ग्रह नहीं था। वे सभी इस धरती पर निवास करने वाले देव और दानव थे।
हिन्दू धर्म कर्मप्रधान धर्म है, भाग्य प्रधान नहीं। वेद, उपनिषद और गीता कर्म की शिक्षा देते हैं। सूर्य को इस जगत की आत्मा कहा गया है। एक समय था जबकि ध्यान और मोक्ष की प्राप्ति के लिए ज्योतिष का भी सहारा लिया जाता था लेकिन अब नहीं। प्राचीनकाल में ज्योतिष विद्या का उपयोग उचित जगह पर करने के लिए घर, आश्रम, मंदिर, मठ या गुरुकुल बनाने के लिए ज्योतिष विद्या की सहायता ली जाती थी।
वैदिक ज्ञान के बल पर भारत में एक से बढ़कर एक खगोलशास्त्री या ज्योतिष हुए हुए हैं। इनमें गर्ग, आर्यभट्ट, भृगु, बृहस्पति, कश्यप, पाराशर, वराह मिहिर, पित्रायुस, बैद्यनाथ आदि प्रमुख हैं। उस काल में खगोलशास्त्र ज्योतिष विद्या का ही एक अंग हुआ करता था। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ज्योतिष के 18 महर्षि प्रवर्तक या संस्थापक हुए हैं। कश्यप के मतानुसार इनके नाम क्रमश: सूर्य, पितामह, व्यास, वशिष्ट, अत्रि, पाराशर, कश्यप, नारद, गर्ग, मरीचि, मनु, अंगिरा, लोमेश, पौलिश, च्यवन, यवन, भृगु एवं शौनक हैं।
गीता में लिखा गया है कि ये संसार उल्टा पेड़ है। इसकी जड़ें ऊपर और शाखाएं नीचे हैं। यदि कुछ मांगना और प्रार्थना करना है तो ऊपर करना होगी, नीचे कुछ भी नहीं मिलेगा। आदमी का मस्तिष्क उसकी जड़ें हैं। उसी तरह यह ज्योतिष विज्ञान भी वृहत्तर है जिसे समझना और समझाना मुश्किल है। यहां हम ज्योतिष विज्ञान का विरोध नहीं कर रहे हैं।
ज्योतिष विद्या को मानना चाहिए या नहीं?
वर्तमान में प्रचलित ज्योतिष विद्या एक ऐसी विद्या है, जो आपको धर्म और ईश्वर से दूर करके ग्रहों को पूजने की शिक्षा देती है, जो कि गलत है। यह विद्या आपको शनि, राहु, केतु और मंगल से डराने वाली विद्या है और यही कारण है कि वर्तमान में शनि के मंदिर बहुत बन गए हैं। लोग कालसर्प दोष, ग्रह दोष और पितृ दोष से परेशान होकर घाट-घाट के चक्कर काट रहे हैं।
दरअसल, प्रारंभ में यह ज्ञान राजा, पंडित, आचार्य, ऋषि, दार्शनिक और विज्ञान की समझ रखने वालों तक ही सीमित था। ये लोग इस ज्ञान का उपयोग मौसम को जानने, वास्तु रचना करने तथा सितारों की गति से होने वाले परिवर्तनों को जानने के लिए करते थे। इस ज्ञान के बल पर वे राज्य को प्राकृतिक घटनाओं से बचाते थे और ठीक समय पर ही कोई कार्य करते थे।
धीरे-धीरे यह विद्या जन सामान्य तक पहुंची तो राजा और प्रजा सहित सभी ने इस विद्या में मनमाने विश्वास और धारणाएं जोड़ीं। अंध धारणाओं के कारण धीरे-धीरे इसमें विकृतियां आने लगीं, लोग इसका गलत प्रयोग करने लगे। राजा भी इस विद्या के माध्यम से लोगों को डराकर अपने राज्य में विद्रोह को दबाना चाहता था और पंडित ने भी अपना चोला बदल लिया था।
इस सब कारण के चलते विद्धान ज्योतिषाचार्य व ज्योतिष ग्रंथ समाप्त हो गए। शोध कार्य मृतप्राय होकर बंद हो गए। अज्ञानी लोगों ने ज्योतिष का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया। इसे व्यापार का रूप देकर धन कमाने के लालच में झूठी भविष्यवाणी करके शोषक ‍वर्ग शोषण के धंधे में लग गया। जो भविष्यवाणी सच नहीं होती उसके भी मनमाने कारण निर्मित कर लिए जाते और जो सच हो जाती उसका बढ़ा-चढ़ाकर बखान किया जाता। इसके चलते भारत में ज्योतिष का जन्म होने के बावजूद अब यह विद्या भारत से ही लुप्त हो चली है।
अब इस विद्या की जगह एक नई विद्या है कुंडली पर आधारित फलित ज्योतिष। ज्योतिषाचार्यों की महंगी फीस, महंगे व गलत उपायों से जनसामान्य आज भी धोखे में जी रहा है। आज ज्योतिष मात्र खिलवाड़ का विषय बन गया है। टीवी चैनलों के माध्यम से तो इस विद्या के दुरुपयोग का और भी विस्तार हो गया है। अब इसे विज्ञान कहना गलत होगा।
ग्रह, ग्रह है या देवता या देवता एवं ग्रहों में क्या फर्क है?
कालांतर में प्रत्येक ग्रह का एक देवता नियुक्त कैसे हो गया, यह शोध का विषय है। कुछ लोग कहते हैं कि जब हमारे ऋषियों के समक्ष ग्रहों की चाल, दशा और दिशा बताने का कोई ठोस उपाय नहीं था तब उन्होंने इस संपूर्ण घटनाक्रम को एक कथा में पिरोया। अब किसी देवता की कहानी को ग्रह की कहानी से निकालकर देखना और किसी ग्रह की कहानी को देवता की कहानी से निकालकर देखना जरूरी है। ऋषियों ने तारामंडल के इस संपूर्ण डाटा को संरक्षित रखने के लिए प्रत्येक ग्रह का एक देवता नियुक्त कर उस आधार पर पंचांग, कैलेंडर आदि बनाए और ग्रहों की चाल को बताने के लिए कथा का भी सृजन किया।
सूर्य ग्रह को कश्यप ऋषि की पत्नी अदिति के सबसे बड़े पुत्र आदित्य से जोड़ दिया गया। सभी आदित्यों को देवता माना गया। सूर्य रविवार के स्वामी हैं। इसी तरह चन्द्र ग्रह को वैदिक देवता चन्द्र से जोड़ा गया। उन्हें सोम भी कहा जाता है, जो ऋषि अत्रि के कुल के हैं। ये सोमवार के स्वामी हैं। इसी तरह मंगल ग्रह को मंगलदेव से जोड़ा गया जिन्हें अंगारक भी कहा जाता है। इन्हें भूमि पुत्र कहा गया है। इसी तरह अत्रिकुल के ही इला के पुत्र बुध को बुध ग्रह का देवता माना गया। इन्हीं के पुत्र का नाम चन्द्र है। इसका वार बुधवार है। इसी तरह बृहस्पति ग्रह को ऋषि बृहस्पति से जोड़ा गया, जो देवताओं के गुरु हैं। गुरुवार उनका वार है। इसी तरह देवताओं के गुरु शुक्राचार्य के नाम पर शुक्र ग्रह नियुक्त किया गया, जो कि शुक्रवार के स्वामी ग्रह हैं। इसी तरह सूर्य के पुत्र शनि को शनि ग्रह का देवता नियुक्त किया गया, जो शनिवार के स्वामी हैं।
निश्‍चित ही देवता और ग्रह दोनों अलग-अलग हैं। जो देवता जिस ग्रह का प्रतिनिधित्व करता है या जिस देवता का चरित्र जिस ग्रह के समान है या यह कहें कि ग्रहों की प्रकृति को दर्शाने के लिए उसकी प्रकृति अनुसार ग्रहों के नाम उक्त देवताओं पर रखें गए, जो उस प्रकृति के हैं।
राहु और केतु एक दानव थे जिन्होंने अमृत मंथन के समय चोरी से अमृत का स्वाद चख लिया था। सभी ग्रहों की छाया को राहु और केतु की छाया माना जाता है। इस छाया का भी धरती पर प्रभाव पड़ता है। कुछ ज्योतिषाचार्य कहते हैं कि यह दक्षिणी और उत्तरी ध्रुव का प्रतीक है। ज्योतिष के अनुसार केतु और राहु आकाशीय परिधि में चलने वाले चन्द्रमा और सूर्य के मार्ग के प्रतिच्छेदन बिंदु को निरूपित करते हैं इसलिए राहु और केतु को क्रमशः उत्तर और दक्षिण चन्द्र आसंधि कहा जाता है। यह तथ्य कि ग्रहण तब होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा इनमें से एक बिंदु पर होते हैं।
क्या कोई-सा ग्रह खराब या अच्छा होता है
कोई-सा भी ग्रह न तो खराब होता है और न अच्छा। ग्रहों का धरती पर प्रभाव पड़ता है लेकिन उस प्रभाव को कुछ लोग हजम कर जाते हैं और कुछ नहीं। प्रकृति की प्रत्येक वस्तु का प्रभाव अन्य सभी जड़ वस्तुओं पर पड़ता है।
ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार ग्रहों के पृथ्वी के वातावरण एवं प्राणियों पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन-विश्लेषण भी किया जाता है। एक ज्योतिष या खगोलविद यह बता सकता है कि इस बार बारिश अच्छी होगी या नहीं।
का संबंध है, तो इस संबंध में कहा जाता है कि जब मौसम बदलता है तो कुछ लोग ‍बीमार पड़ जाते हैं और कुछ नहीं। ऐसा इसलिए कि जिसमें जितनी प्रतिरोधक क्षमता है वह उतनी क्षमता से प्रकृति के बुरे प्रभाव से लड़ेगा। दूसरा उदाहरण है कि जिस प्रकार एक ही भूमि में बोए गए आम, नीम, बबूल अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार गुण-धर्मों का चयन कर लेते हैं और सोने की खदान की ओर सोना, चांदी की ओर चांदी और लोहे की खदान की ओर लोहा आकर्षित होता है, ठीक उसी प्रकार पृथ्वी के जीवधारी विश्व चेतना के अथाह सागर में रहते हुए भी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुरूप भले-बुरे प्रभावों से प्रभावित होते हैं।
क्या ग्रहों का मानव जीवन पर प्रभाव पड़ता है?
प्रकाशयुक्त अंतरिक्ष पिंड को नक्षत्र कहा जाता है। हमारा सूर्य भी एक नक्षत्र है। ये नक्षत्र कोई चेतन प्राणी नहीं हैं, जो किसी व्यक्ति विशेष पर प्रसन्न या क्रोधित होते हैं। हमारी धरती पर सूर्य का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है, उसके बाद चन्द्रमा का प्रभाव माना गया है। उसी तरह क्रमश: मंगल, गुरु, बुद्ध और शनि का भी प्रभाव पड़ता है। ग्रहों का प्रभाव संपूर्ण धरती पर पड़ता है, किसी एक मानव पर नहीं। धरती के जिस भी क्षेत्र विशेष में जिस भी ग्रह विशेष का प्रभाव पड़ता है, उस क्षेत्र विशेष में परिवर्तन देखने को मिलते हैं।
धरती के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव का प्रभाव संपूर्ण धरती पर रहता है और पृथ्वी एक सीमा तक सभी वस्तुओं को अपनी ओर खींचती है। समुद्र में ज्वार-भाटा का आना भी सूर्य और चन्द्र की आकर्षण शक्ति का प्रभाव है। अमावस्या और पूर्णिमा का भी हमारी धरती पर प्रभाव पड़ता है।
जब हम प्रभाव पड़ने की बात करते हैं तो इसका मतलब यह कि एक जड़ वस्तु ‍चाहे वह चन्द्रमा हो, उसका प्रभाव दूसरी जड़ वस्तु चाहे वह समुद्र का जल हो या हमारे पेट का जल, पर पड़ता है। लेकिन हमारे मन और विचारों को हम नियंत्रण में रख सकते हैं।
हमें ग्रहों को पूजना चाहिए या नहीं?
ज्योतिष शास्त्र के अंतर्गत बीजगणित, अंकगणित, भूगोल, खगोल और भूगर्भ विधा आती है जिनमें ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, ऋतुएं, उत्तरायन, दक्षिणायन, दिन, मास, वर्ष, युग, मन्वंतर, कल्प, प्रलय आदि अनेक विषयों का अध्ययन किया जाता है, परंतु इस ज्योतिष के नाम पर फलित ज्योतिष खड़ा किया गया है जिसका संबंध जीवों के कर्मफल से जोड़ा गया है।
इस फलित ज्योतिष का उद्देश्य ही जीवों का भविष्य जानना, इष्ट लाभ और अनिष्ट परिहार (नष्ट करना) है। फलित ज्योतिष में भविष्य जानने के लिए जन्म पत्रिका, हस्तरेखा, राशि, ग्रह, नक्षत्र, शकुन, अंग स्फुरण, तिल और स्वप्न आदि को आधार बनाया जाता है। फलित ज्योतिष का वर्तमान में अत्यधिक प्रचार-प्रसार होने से 'ज्योतिष' शब्द का अर्थ फलित ज्योतिष के अर्थ में रूढ़ (निश्चित) हो गया है। अशिक्षितजनों से लेकर शिक्षितजनों तक फलित ज्योतिष के द्वारा भविष्यफल देखने-दिखाने की प्रवृत्ति देखी जाती है, जो समाज में ज्योतिष विषयक फैले अज्ञान का परिचायक है।
फलित ज्योतिष द्वारा धूर्त लोग अनेक मिथ्या ग्रंथ बना, लोगों को सत्य ग्रंथों से विमुख कर अपने जाल में फंसाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। इन्हीं लोगों ने ग्रहों की पूजा को प्रचलन में लाया है और अब तो ग्रह और नक्षत्रों के मंदिर भी बन गए हैं। कोई मूर्ख ही होगा, जो ग्रह शांति और ग्रहों की पूजा का कार्य करता होगा।